स्पेशल
रिपोर्ट
पहले दिवालिया होना सामाजिक
शर्म के साथ-साथ व्यक्तिगत आघात भी होता था। किसी व्यापारी या व्यापारिक घराने का
दिवाला निकलने पर उसके करीबी उस दिवालियापन को छुपाने की हर संभव कोशिश करते थे।
इतना ही नहीं कई बार तो दिवालिया हुआ व्यापारी शर्म की वजह से आत्महत्या तक कर
लेते थे। लेकिन आज के दौर में दिवालिया होना शर्म की बात नहीं रही। आज के दौर में
दिवालिया होना इस बात की तस्दीक करता है कि आप एक ऐसे व्यापारी हैं जिसे हर स्थिति
में अपने आप को सुरक्षित करना आता है फिर चाहे निवेशकों का तेल ही भले ना निकल
जाए। अब सवाल यह है कि आखिर ये बदलाव आया कहां से और इसकी शुरुआत कैसे हुई?
असल में साल 2016 में दिवाला औऱ दिवालिया संहिता यानी इनसॉल्वेंसी एंड बैंकक्रप्सी कोज नाम
का एक नया कानून बना। इस नए कानून में व्यापारियों को छूट दी गयी। कानून
ने व्यापारियों को यह छूट दी कि अगर व्यापारी बैंक का कर्ज नहीं लौटा पा रहा है तो
खुद को दिवालिया घोषित कर दे। सरकारी व्यवस्था आपकी कंपनी को बेचकर बैंकों का और
दूसरे कर्ज को लौटाएगी। कानून के तहत मकसद था कि देश के व्यापारियों को फायदा
पहुंचाया जाए और अगर वह किसी वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं तो फौरी तौर पर
उनकी मदद की जाए लेकिन आगे चलकर इस कानून का गलत तरीके से फायदा उठाना कुछ लोगों
ने आरंभ कर दिया।
दिवालिया हो
जाना या नीलामी बन रही है नया आर्थिक शास्त्र
आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक
इस समय देश की लगभग 5 हजार छोटी बड़ी कंपनियां दिवालिया हैं। सही आंकड़ा 4946
का है। इन कंपनियों में से 457 का रिसोल्यूशन
भी हो गया है। यानी यह कंपनियां नीलाम हो चुकी हैं। सच्चाई यह भी है कि इन 457
कंपनियों से नीलामी के बाद जो पैसा मिला उससे ना तो कंपनियों का
कर्ज ही पूरा खत्म हुआ और ना ही बैंकों की ही लेनदारी की पूरी तरह से पूर्ति ही हो
पाई।
इसे समझने के लिए आपको सरकार की
उस रिपोर्ट को समझना होगा जिसमें सरकार का दावा है कि सरकारी बैंकों के 8 लाख 30 हजार करोड़ रुपये बतौर कर्ज में फंसे थे।
बेची गयी कंपनियों की कीमत उतनी नहीं मिली जितना अंदाजा नीलामी को लेकर सरकार ने
लगाया था। नीलामी के तहत सरकार को 2 लाख 50 हजार करोड़ रुपये ही प्राप्त हुए। यानी बैंकों को अपने खाते से 6 लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ करने पड़े। यानी देश के बैंकों को सीधे सीधे 6
लाख करोड़ रुपये का घाटा इन कंपनियों की नीलामी के बाद उठाना पड़ा।
6 लाख करोड़ रुपये का
घाटा सरकार को हुआ या देश के लोगों को यह भी सोचना जरूरी है
अब सोचना यह है कि सरकार ने तो 6 लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ कर दिये लेकिन यह पैसा किसका है? और
सवाल यह भी है कि आखिर किस किस कंपनी की नीलामी हुई। अगर आप नाम सुनेंगे तो आप
चौंक जरूर जाएंगे।
नीलामी में
किस किस कंपनी का निपटारा हुआ
जी हां, यह सवाल यहां जरूर खड़ा होता है कि आखिर नीलामी किन किन कंपनियों की हुई।
तो अगर आप नीलामी हुई कंपनियों की फेहरिस्त देखेंगे तो आपको अंदाजा हो जाएगा कि
आखिर इस नीलामी से फायदा किसका और नुकसान किसका हो रहा है। मसलन, पहला नाम है जेट एयरवेज फिर एस्सार स्टील, भूषण
स्टील, जेपी इन्फ्रा, विडियोकॉन,
रुचि सोया, एबीजी शिपयार्ड, एमटेक ग्रुप, अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप आदि।
नीलामी का खेल
कैसे खेला जाता है?
अब चलिये हम आपको यह बताते हैं
कि यह नीलामी का खेल खेला कैसे जाता है। असल में जब कंपनियां किसी बैंक या वित्तीय
संस्था से मोटा लोन ले लेती हैं और चुका नहीं पाती तब यह कंपनियां खुद ही दिवालिया
संहिता कानून के तहत अपने संकट के समाधान के लिए लॉ ट्रिब्यूनल में
जाती हैं। कई बार बैंक भी इन कंपनियों को लॉ ट्रिब्यूनल के पास लेकर जाते हैं। इस
कानून में चूंकि कर्ज निपटारे को लेकर व्यवस्था है। लॉ ट्रिब्यूनल कंपनी का केस
किसी चार्टर्ड अकाउंटेंट या ऑडिट कंपनी को कंपनी की समस्या सा समाधान करने के लिए
कहता है। इस प्रक्रिया को रिसोल्यूशन प्रोफेशनल यानी आरपी कहा जाता है। आरपी कंपनी
को तत्काल अपने कब्जे में लेकर उसके खाते बही की जांच पड़ताल करता है। कंपनी की
संपत्तियों की एक निर्धारित कीमत तय करता है और लेनदारों की देनदारियां देने के
लिए एक कमेटी का गठन किया जाता है। सहमति के बाद कंपनी की नीलामी की जाती है ताकि
लेनदारों की देनदारियों का निपटारा और बैंक की देनदारी खत्म हो सके।
इस पूरी प्रक्रिया में इस बात
का ध्यान रखा जाता है कि इस रास्ते ज्यादा से ज्यादा बैंकों की रिकवरी हो सके
कंपनी को कम से कम नुकसान हो। उदाहरण के लिए वीडियोकॉन पर 46 हजार करोड़ रुपये का कर्ज था। लेकिन कंपनी सिर्फ 3 हजार
करोड़ रुपये में बिक रही है। जेट एयरवेज पर 15 हजार करोड़
रुपये का कर्ज था। जेट एयरवेज भी महज 2 हजार करोड़ रुपये में
ही बिक पायी। रुचि सोया पर 12 हजार करोड़ रुपये का कर्ज था
और वह भी महज 4 हजार 3 सौ करोड़ रुपये
की ही बिकी।
इसी फेहरिस्त में कपड़ा
फैक्ट्री आलोक इंडस्ट्रीज पर 24 हजार करोड़ रुपये का कर्ज था। यह
कंपनी भी महज 5 सौ करोड़ रुपये में बिक पायी। इसी तरह से
बरिस्ता कॉफी वाली कंपनी एमटेक ग्रुप पर 24 हजार करोड़ रुपये
का कर्ज था। बारिस्ता भी महज 1500 करोड़ में ही नीलाम हो
पायी। इसी तरह से बात अगर रिलायंस नेवल की कि जाए तो रिलायंस नेवल पर 12 हजार 429 करोड़ रुपये कर्ज था। यह कंपनी भी सिर्फ 800
करोड़ रुपये की ही नीलाम हो पायी। ऐसे अनेक मामले हैं जिसमें कंपनी
ने लाखों हजारों करोड़ रुपये का कर्ज लिया या उसपर देनदारी रही लेकिन नीलामी में
बैंक के पास उसकी लगभग आधी ही रकम वापस आयी।
लॉ ट्रिब्यूनल
का मकसद क्या था
दिवाला और दिवालिया कानून का
मकसद था कि दिवालियां कंपनियों से बैंक जल्द से जल्द अपनी रकम को रिकवर कर लें।
ताकि बैंकों को ज्यादा आर्थिक नुकसान सहन ना करना पड़े। क्योंकि पहले उन्हें कर्ज
रिकवरी के लिए डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल के पास जाना पड़ता था उससे कंपनियों से कर्ज
वसूलने में काफी लंबा वक्त लग जाया करता था। इससे बैंकों के कर्ज बांटने की
प्रक्रिया पर सीधा असर पड़ता था और बैंकों का कर्ज वितरण सिस्टम प्रभावित हो जाया
करता था।
इसी समस्या को देखते हुए बैंकों
की ओर से इस समस्या के निराकरण के लिए लोन रिकवरी व्यवस्था की मांग हो रही है, लेकिन अभी इस कानून को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। मसलन, नए कानून के कारण लोन रिकवरी में लाखों रुपये खाक हो गए। बैंकों का कर्ज
मालिकों ने कैसे डुबोया या पैसे किस तरह से चुपचाप अपनी ऑफ शोर कंपनी जिनके खाते
ज्यादातर विदेशी बैंकों में हैं उनमें भेज दिए। इसकी जांच इस कानून के तहत नहीं की
गयी। आलोक इंडस्ट्रीज के मालिकों के गुप्त खाते होने की बात पैंडोरा पेपर्स में भी
आयी बावजूद इसके इनके खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई इनके खिलाफ नहीं हुई। एमटेक कंपनी
के मालिकों ने 127 फर्जी कंपनियां बनाई और उनमें 80 प्रतिशत से ज्यादा संपत्तियां और पैसे इन कंपनियों से अटैच कर डाले और खुद
को दिवालिया घोषित कर दिया। आज तक इनके मालिकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई और
ना ही कोई सवाल ही पूछा गया। दूसरी ओर अगर देश का साधारण व्यक्ति होम लोन की तीन
महीने किस्त ना चुका पाये तो बैंक व्यक्ति के खिलाफ कुड़की तक की प्रक्रिया फोलो
करने में समय नहीं लगाता। अखबार में इश्तहार देकर सीधे नीलामी की धमकी फोटो के साथ
छप जाती है वो अलग। इतना ही नहीं अगर शिक्षा के लिए कोई व्यक्ति लोन ले लेता है तो
एजुकेशन लोन लौटाने का दबाव बैंक छात्र तक पर डालने लगते हैं।
राइट ऑफ से
किसका फायदा किसका नुकसान
अब सवाल यह भी है कि राइट ऑफ से
देश में नुकसान किसका हो रहा है और इसका फायदा कौन उठा रहा है? तो
यहां यह भी समझना आवश्यक है कि बैंकों की रिकवरी अधिकतम 20 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बैंकिंग व्यवस्था की 80 प्रतिशत राशि राइट ऑफ कर दी गयी। सवाल यह भी कि इसकी मार कौन झेलेगा? इसे
समझने के लिए एक उदाहरण और लेते हैं। डूब चुके यस बैंक को बचाने का जिम्मा स्टेट
बैंक को दिया गया। स्टेट बैंक ने यस बैंक को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए 15 हजार करोड़ रुपये डाले दूसरे दिन स्टेट बैंक ने सामान्य बचत पर निर्धारित
ब्याज दर में कटौती कर डाली। यानी एक तरफ यस बैंक में पैसे डाले गए और दूसरी ओर
देश के आम नागरिकों पर ब्याज में कटौती करके उनकी जेब से ही पैसे निकाल लिए। कुल
मिलाकर देखा जाए तो यह मार देश के उन अमीरों पर नहीं पड़ी जिन्होंने गबन किया या
बैंकों को चूना लगाया मार पड़ी देश के आम नागरिक को जिनका इस पूरे मामले से दूर
दूर तक कोई लेना देना ही नहीं था।
बैंकों पर मार
नहीं बल्कि देश के नागरिकों की जेब पर डाका
बड़ी कंपनियों का दिवालिया हो
जाना या दिवालिया घोषित कर देने के बाद लॉ ट्रिब्यूनल में जाकर राइट ऑफ ले लेने से
नुकसान देश के आम नागरिक का ही हो रहा है। अगर आंकड़ों की ही बात की जाए तो 2016 के बाद से अब तक यानी पिछले 6 सालों के दौरान भारत
के सरकारी और गैर सरकारी बैंकों का 10 लाख करोड़ रुपया डूब
चुका है। डूब चुके इस रुपये की मार बैंक की रीढ़ तो तोड़ ही रही है साथ ही इसका
असर भारत की अर्थव्यवस्था पर भी हमेशा के लिए पड़ेगा। साधारण लोगों को लोन महंगा
मिलेगा और बचत खातों पर ब्याज कम प्राप्त होगा जिसका असर अंत: में साधारण
लोगों की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा महंगाई बढ़ेगी और देश के आम नागरिकों का जीवन
मुश्किल होगा।
बहरहाल, सरकार अब इस बिल को लेकर संजीदा तो है लेकिन इस बिल को लेकर आने वाले
दिनों में सरकार क्या कदम उठाती है यह अभी समय के गर्भ में ही है। साथ ही तय यह भी
है कि अगर सरकार ने इस समस्या का समाधान जल्द नहीं किया तो इसका दूरगामी असर देश
की सरकार और अर्थव्यवस्था पर जरूर पड़ेगा।