भाषा विध्वंसकों-हिन्दीघातियों से रहना होगा सचेत!
हिन्दी के बढ़ते-व्यापक होते दायरे के बीच हमें अत्यंत सचेत रहने की भी आवश्यकता है। जी हां हमें 'भाषायी-साम्राज्यवाद' के सुनियोजित कुचक्र में संलिप्त भाषा विध्वंसकों-हिन्दीघातियों से बचकर रहना होगा। अब आप समझ लीजिए कि हिन्दी घाती हैं कौन? ऐसा हर संस्थान, कंपनी और व्यक्ति हिन्दीघाती है जो अपने प्रचार-प्रसार, बातचीत या लेखन में सामान्यत: आवश्यकता के बिना ही हिन्दी के साथ अन्य भाषाओं मुख्यत: अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करता है। कई बड़े अखबार, टीवी चैनल और उनसे संबद्ध पत्रकार व उद्घोषक हिन्दी विरोध के इस सुनियोजित, लेकिन अघोषित अभियान में संभवत: जाने-अनजाने संलिप्त हैं। हिन्दी वास्तव में हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम है, धरोहर है और उससे छेड़छाड़ करके हमारे अखबार और टीवी चैनल 'राष्ट्रीय-अपराध' कर रहे हैं। अब इसे अखबारी प्रसार और चैनल प्रसारण क्षेत्र बढ़ाने का उतावलापन कहें कि कुछ और, लेकिन सच यही है। यदि आपको हमारे इस तथ्य पर विश्वास नहीं है तो आज ही से ध्यान रखना शुरू कीजिए, कुछ दिनों के अध्ययन-विश्लेषण के बाद आप हमसे सहमत होंगे। हमारा मंतव्य यहां अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनाने का विरोध करना कतई नहीं है, बल्कि नागरी-लिपि के स्थान पर रोमन लिपि में लिखने और हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से बचने को लेकर है। क्योंकि शब्दावली बढ़ने से कोई भाषा और सुदृढ़ होती है, लेकिन दूसरी भाषा के शब्दों की बेहताशा घुसपैठ से उसका अस्तित्व ही संकट में पड़ जाता है।
रोकनी होगी 'हिंग्लिश' वाली कार्य प्रवृत्ति
इस हिन्दी विरोधी षड़यंत्र में हमारी हिन्दीभाषी युवा पीढ़ी भी जाने-अनजाने फंस कर अपनी बोलचाल में सामान्य हिन्दी के बजाए अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने की कार्यप्रवृत्ति को लगभग आत्मसात कर चुकी है। हिन्दीघातियों ने बहुत ही गर्व के साथ इस नई भाषा को नया नाम दिया है 'हिंग्लिश'। अत: इन हिन्दीघातियों से सचेत रहिए और समय रहते 'हिंग्लिश' वाली कार्य प्रवृत्ति को रोकिए। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब अन्य कई भाषाओं की तरह हिन्दी भी अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की चपेट में आकर समाप्ति की और अग्रसर होगी और 'हिंग्लिश' हमारी हिन्दी को लील जाएगी।
इस प्रकार नष्ट की जाती है भाषा और संस्कृति
किसी भी भाषा और संस्कृति को नष्ट करने के लिए अंग्रेजी भाषा साम्राज्य के प्रसारक-प्रचारक एक जांची-परखी हुई विधि का ही प्रयोग करते हैं। इसके लिए किसी भाषा को धीरे-धीरे रोमन लिपि में लिखने को बढ़ावा देने के साथ ही बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों को बहुतायत में स्थापित किया जाता है। इससे बोलने वालों को पता ही नहीं चलता कि उनकी भाषा सुनियोजित रूप से बदल रही है, बल्कि वे इसे सामान्य सामायिक परिवर्तन मानते-समझते हैं। इस भाषाई परिवर्तन के लिए सामान्यत: समाचार-पत्र और चैनल सबसे कारगर माध्यम है। सामान्य बोलचाल की भाषा के शब्दों पर कब्जा जमाने के बाद शुरू होता है संवेदनाओं और संस्कृति से जुड़ी शब्दावली को बदलने का। इस सुनियोजित अभियान के तहत धीरे-धीरे एक दिन ऐसा आता है जब अंतत: मूल भाषा हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है और साथ ही संबंधित संस्कृति भी विकृत होने लगती है।
कई दशक से चल रहा है हिन्दी विध्वंस का कुचक्र
हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी को भारत की प्रथम भाषा' बनाने का एक विराट कुचक्र बीते कई दशक से चलाया जा रहा है और दास मानसिकता वाले लोग इसे बढ़ावा देने में लगे हैं। भाषा संबंधी विश्लेषण से पता चलता है कि 'भाषायी-साम्राज्यवाद' के अभियान को सफल बनाने का कारगर तरीका हिन्दी विध्वंस के लिए भी अपनाया जा रहा है। हिन्दी के अधिकांश अखबारों में भी भाषा को लेकर यह कथित रचनाधर्मी-प्रगतिवादी प्रयोग उसी 'भाषायी-साम्राज्यवाद' की परिवर्तनकारी प्रक्रिया के तहत इरादतन और शरारतन किया जा रहा है। इसके लिए अखबार-चैनल और साइबर जगत की भाषा में आम बोलचाल के हिन्दी शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बढ़ाते जा रहे हैं और अब तो हिन्दी अखबारों में समाचारों के शीर्षक भी प्रयोगधर्मिता की ओट लेकर रोमन में प्रकाशित किए जा रहे हैं। हिन्दी की जगह अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति करने पर तर्क दिया जाता है कि यह तो आम बोलचाल के शब्द हैं और इससे भाषा समृद्ध होती है।
आसन्न संकट को कुछ इस तरह समझिए
हमें पता चले बिना ही हमारी हिन्दी में रोमन लिपि और 'हिंग्लिश' का चलन आम होता जा रहा है। हमारी भाषा पर आसन्न संकट को समझने के लिए आपको ध्यान देना होगा कि युवा पीढ़ी हिन्दी पढ़ने- लिखने में ही नहीं बोलने में भी धीरे-धीरे असमर्थ होती जा रही है। स्थिति की गंभीरता को समझने के लिए अभिवादन के शब्दों का विश्लेषण कीजिए हमारी नई पीढ़ियां अब राम-राम, नमस्कार आदि के बजाए गुडमॉर्निंग, हॉय-हैलो कहने में स्वयं को सहज अनुभव करते हैं। अपने पर्वों-त्यौहारों पर हिन्दी के बजाए अंग्रेजी में बधाई और शुभकानाएं प्रेषित करते हैं। घर और कार्यालय में सामान्य व्यवहार में हिन्दी संग अग्रेजी शब्दों का बहुतायत में का प्रयोग करते हैं। हिन्दी के अंकों को लिखने की तो छोड़िए बोलना भी चलन से बाहर हो चुका है।
भाषा विध्वंस को आजमाया जाता है यह तरीका
भाषा विध्वंस के लिए स्नोबॉल थ्यौरी यानी बर्फ के गोलों वाला सिद्धांत आजमाया जाता है। इसे यूं समझिए बर्फ के दो गोलों को यदि एक-दूसरे के निकट रख दिया जाए तो कुछ देर में ही वे आपस में इस तरह जुड़ जाएंगे कि उनको अलग करना संभव नहीं हो सकेगा। ठीक यही सिद्धांत किसी भाषा को नष्ट करने में भी सफलतापूर्वक काम करता है। उदाहरण के लिए हिन्दी में यदि आम बोलचाल और व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों की भरमार होने पर दोनों भाषाओं के शब्द आपस में इस प्रकार जुड़ जाएंगे कि उनको अलग करना मुश्किल हो जाएगा। अब जब हिन्दी अखबारों में समाचारों के शीर्षक तक अंग्रेजी में (लिपि रोमन हो या देवनागरी) प्रकाशित किए जाने लगेंगे और टीवी चैनल के उद्घोषक अपने कार्यक्रम में हिन्दी कम और अंग्रेजी शब्दों का ज्यादा प्रयोग करेंगे तो हम और आप अपनी भाषा को आखिर कैसे बचाए रख सकेंगे। क्योंकि आज नहीं तो कल हमारी नई पीढ़ी ऐसी ही भाषा अखबारों में पढ़ेगी, टीवी पर देखे-सुनेगी और उसी का प्रयोग करने की आदी हो जाएगी।
भाषा-बोली और व्याकरण
किसी भी भाषा का विकास बोली या बोलियों से होता है। भाषा वास्तव में बोली का लिपिबद्ध किया जा सकने योग्य व्याकरणयुक्त परिमार्जित स्वरूप होता है। हम अपने भाव किसी भी तरह बोलकर व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन उसे लिपिबद्ध करने को मानक व्याकरण की आवश्यकता होती है। इसे कुछ यूं समझिए कि बोली से हम अपने भावों को समझा पाते हैं, व्यक्त कर सकते हैं, उसे शुद्ध रूप से लिखे जाने को ही भाषा कहते हैं। व्याकरण किसी भाषा को शुद्ध करने वाला नियम शास्त्र है। इसके माध्यम से ही किसी भाषा को शुद्ध रूप में पढ़ा और लिखा जाता है। भाषा की शुद्धता व सुंदरता बनाए रखने को व्याकरण के नियमों का पालन करना आवश्यक है। एक समृद्ध भाषा की व्याकरण उसकी सांस होती है और किसी भाषा से यदि व्याकरण को हटा दिया जाए जो वह केवल बोली बनकर ही रह जाती है और फिर उसे विध्वंस से कोई नहीं बचा सकता।
भाषा से व्याकरण को लुप्त करके किया जाता है बोली बनाने का काम
भाषाविदों के अनुसार भाषा से व्याकरण को लुप्त करने का कार्य उसमें अन्य भाषाओं के शब्दों को जोड़कर किया जाता है। इस प्रक्रिया में मूल भाषा में अन्य भाषाओं के इतने शब्द समाहित हो जाते हैं कि उन्हें अलग कर पाना संभव नहीं होता। कई भाषाओं को मिलाकर बनी नई भाषा कहें कि बोली को 'क्रियोल' कहते हैं, यह दो या अधिक भाषाओं के मेल से बनी हो सकती है और इसे बनाने की प्रक्रिया 'क्रियोल' करना या 'क्रियोलीकरण' कही जाती है अर्थात किसी भाषा से उसके व्याकरण और दैनिक व्यवहार में आने वाली शब्दावली को ही छीन लेना। इसके बाद संबंधित क्षेत्र की भाषा के सूचना-प्रसार माध्यमों में समाचारों आदि स्थानीय भाषा को उसकी मूल लिपि के बजाए रोमन लिपि के शब्दों को बढ़ावा देने का कार्य किया जाता है, जिससे कि मूल भाषा की लिपि धीरे-धीरे अप्रासंगिक और अपठनीय हो सके।
'क्रियोलीकरण' के बाद शुरू होता है 'भाषायी-साम्राज्यवाद' का आखिरी वार-प्रहार
और 'क्रियोलीकरण' के बाद शुरू होता है 'भाषायी-साम्राज्यवाद' का अंतिम चरण यानी आखिरी वार-प्रहार। यह है 'अक्रियोलीकरण' यानी 'डि-क्रियोल' की प्रक्रिया अर्थात बाहरी भाषा (अंग्रेजी आदि) को मूल भाषा या भाषाओं) के स्थान पर स्थापित करना। इसमें अखबारों-साहित्य को मूल भाषा की लिपि के बजाए रोमन लिपि में छापने का कार्य किया जाने लगता है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक भाषाविद बताते हैं कि इसी युक्ति के माध्यम से गुयाना में हिन्दी का 'अक्रियोलीकरण' कर दिया गया और वहां अब देवनागरी के स्थान पर रोमन-लिपि को लागू कर दिया गया। जिस गुयाना में लगभग 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे, वहां अब हिन्दी की किताबें अपठनीय होती जा रही हैं। हिन्दी को लेकर कुछ ऐसा ही षड़यंत्र त्रिनिदाद में भी किया गया है। त्रिनिदाद में भी हिन्दी को मूल लिपि की जगह रोमन में छापा जा रहा है।
केवल बोली ही बनकर रह जाएगी हिन्दी
हिन्दी के दुश्मनों ने अरसे से इसके 'क्रियोलीकरण' का अभियान चला रखा है। हमारे अधिकांश अखबारों में हिन्दी शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ कराकर और कई शब्दों को रोमन लिपि में छापने का कार्य किया जा रहा है। किसी स्थानीय भाषा को मूल लिपि के बजाए पूर्णत: रोमन लिपि में छाप-लिखकर भाषा विध्वंस करने का कार्य भारत में भी शुरू हो चुका है और इसकी शुरूआत हुई है कोंकणी से, जिसे अब देवनागरी ही नहीं रोमन में भी लिखा-छापा जा रहा है। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि गुयाना और त्रिनिदाद में हिन्दी के साथ किया गया।भाषाविदों की मानें तो हिन्दी के साथ भी यही कुछ हो रहा है। हिन्दी को पीछे धकेलकर 'हिंग्लिश' का प्रचार-प्रसार करके बढ़ावा देना भी उसका चुपचाप किया जा रहा 'क्रियोलीकरण' ही है। परिणाम स्वरूप 'हिंग्लिश' को लेकर यदि सावधानी नहीं बरती गई तो हिन्दी, भाषा से केवल बोली ही बनकर रह जाएगी। यदि अभी नहीं चेते तो साइबरयुग में 'हिंग्लिश' और रोमन लिपि का तेजी से बढ़ता प्रचलन हमारी हिन्दी ही नहीं, बल्कि संस्कृति के लिए भी संहारक सिद्ध होगा। इसे अविलंब रोकने की जरूरत है। हम समस्त हिन्दी भाषियों को इसे लेकर न केवल सजग-सचेत रहना होगा, बल्कि अपना विरोध भी दिखाना होगा।