वोडाफ़ोन आइडिया की याचिका उच्चतम न्यायालय में ख़ारिज हो गयी है, जिसमें 2500 करोड़ रुपये + 1000 करोड़ रुपये देने की बात की गई थी। ख़ास बात यह है कि इसी याचिका में कंपनी ने ये मांग भी की थी कि उसके हितों के विपरीत कोई बड़ी कार्रवाई न की जाए।
यह दूसरा मौका है जब वोडाफ़ोन आइडिया को किसी भी तरह की राहत देने से मना किया गया है।
जाहिर है कि मामला बद से बदतरीन होता जा रहा है। 53,000 करोड़ की रकम आखिर कोई मामूली रकम तो होती नहीं है और यह रकम वोडाफोन आईडिया द्वारा सरकार को दिया जाना है।
कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि टेलीकॉम सेक्टर का यह संकट वोडाफ़ोन आइडिया को भारत में बिजनेस बंद करने पर मजबूर कर सकता है। कंपनी के चेयर पर्सन कुमार मंगलम बिरला पहले ही यह बात कह चुके हैं। देखा जाए तो अब इस कंपनी को सरकारी सहायता ही बचा सकती है।
हालाँकि, संकट से निकालने के लिए सेंट्रल गवर्नमेंट अगर कंपनी को कोई मदद देती है तो वह बेहद महंगा सौदा साबित हो सकता है। बावजूद इसके कंपनी के सन्दर्भ में कई और किन्तु-परन्तु हैं।
इस मामले को छोटा नहीं माना जा सकता, क्योंकि 30 करोड़ से ज़्यादा कस्टमर रखने वाली वोडाफोन आईडिया टेलीकॉम सेक्टर के बड़े प्लेयर में शुमार है और इससे 13 हज़ार से अधिक लोग सीधे तौर पर रोजगार पाते हैं।
जाहिर तौर पर पूरे टेलीकॉम उद्योग को इससे बड़ा झटका लग सकता है।
यूं भी वोडाफ़ोन आइडिया पहले से ही मुश्किल में हैं, जब लगातार उन्हें घाटा हो रहा है।
खुदा न खास्ता अगर वोडाफोन आईडिया बंद होती है तो रिलायंस जियो एवं एयरटेल ही मार्किट में बचेंगी और यह स्थिति उपभोक्ताओं के लिहाज से उचित नहीं कही जा सकती है। यूं भी भारती एयरटेल की हालत भी ख़राब ही है।
जाहिर तौर पर बदली परिस्थितियों में रिलायंस जियो अकेले खिलाड़ी के तौर पर मोनोपोली की स्थिति में आ सकती है।
प्रश्न उठता है कि ऐसा हुआ क्यों?
बताते चलें कि तीन साल पहले जियो ने मार्किट में मोबाइल इंटरनेट की दरें कम करके सबको चौका दिया था। यह एक क्रांति थी और इसके साथ ही भारत दुनिया में सबसे सस्ते रेट्स पर मोबाइल इंटरनेट सर्विस देने वाले देशों में शुमार हो गया।
उपभोक्ताओं को तो निश्चित रूप से फायदा हुआ, किन्तु बाकी प्लेयर्स का बिजनेस मॉडल बिखरता चला गया। दसियों प्लेयर्स में से अब जिओ के अलावा वोडाफोन आइडिया और एयरटेल ही बचे हैं और हालिया संकट के बाद वोडाफोन आईडिया तकरीबन बंद होने की कगार पर खड़ी हो चुकी है।
अगर यह बंद होती है तो जियो कंज्यूमर्स की संख्या कई करोड़ बढ़ जाएगी, जो वर्तमान में 36 करोड़ के आसपास है।
वस्तुतः यह पूरा मामला एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू को लेकर है।
प्रश्न उठता है कि यह एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू आखिर है क्या, जिस पर टेलीकॉम कंपनियां और इंडियन गवर्नमेंट उलझी हुई हैं?
एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू वस्तुतः संचार मंत्रालय के डॉट- Dot द्वारा टेलीकॉम सेक्टर की कंपनियों द्वारा हासिल किया जाने वाला यूजेज व लाइसेंसिग फीस है। इसमें मुख्यतः स्पेक्ट्रम यूजेज चार्ज एवं लाइसेंसिंग फीस, जो क्रमशः 3-5 फीसदी व 8 फीसदी होता है, उसे शामिल किया गया है।
सामान्य भाषा में इस एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू (एजीआर) को टेलीकॉम कंपनियों की कमाई पर एक तरह से दिया जाने वाला अलग टैक्स कंसीडर किया जा सकता है, हालाँकि मुख्य मुद्दा इसकी डेफिनिशन को लेकर है।
कंपनियों के अनुसार केवल टेलीकॉम बिज़नेस से होने वाली आय को ही एजीआर के लिए काउंट किया जाना चाहिए, लेकिन गवर्नमेंट कहती है कि ग़ैर टेलीकॉम बिज़नेस जैसे परिसंपत्तियों की बिक्री व डिपाजिट्स पर मिलने वाले इंटरेस्ट को भी इसमें कॉउंट किया जाए।यह उलझाव लम्बे समय तक चला है।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह मामला साफ़ हो गया है, लेकिन टेलीकॉम सेक्टर के भविष्य पर बड़ी तलवार ज़रूर लटक गयी है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि रेवेन्यू प्राप्त करने के साथ-साथ सरकार कोई ऐसा रास्ता निकालने में सफल होगी, जिससे टेलिकॉम इंडस्ट्री 'मोनोपोली' की सिचुएशन में नहीं जाएगी।
- मिथिलेश कुमार सिंह
डिजिटल एडिटर