खौफ खाती थीं जिससे इंदिरा गांधी भी
बांग्लादेश युद्ध का नायक : सैम बहादुर
बॉलीवुड एक्टर विक्की कौशल ने फील्ड मार्शल सैम
मानेकशॉ की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि दी है. उन्होंने एक वीडियो
इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया है जिसमें उन्होंने सैम की काफी पुरानी ब्लैक एंड
व्हाइट तस्वीर शेयर की है. फोटो में सैम अपनी बटैलियन के बीच खड़े नजर आ रहे हैं.
वीडियो में लिखा है- सलाम करता हूं फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को उनकी पुण्यतिथि
पर. वीडियो के कैप्शन में विक्की ने लिखा, "याद कर रहा हूं
भारत के सबसे अच्छे फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को. बांग्लादेश युद्ध में भारत को
मिली जीत के बाद सैम मानेकशॉ की लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई थी और ऐसी अफवाहें
उड़ने लगी थीं कि वे तख्तापलट कर सकते हैं 29 अप्रैल,
1971 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल की
आपात बैठक बुलाई. मीटिंग में हाज़िर लोग थे - वित्त मंत्री यशवंत चौहान, रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम, कृषि मंत्री
फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह और इन
राजनेताओं से अलग एक ख़ास आदमी- सेनाध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ. ‘क्या कर रहे हो सैम?’ इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल
के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक रिपोर्ट जनरल की तरफ फेंकते हुए सवालिया लहजे में
कहा. इसमें पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों की बढ़ती समस्या पर गहरी चिंता जताई
गई थी. सैम बोले, ‘इसमें मैं क्या कर सकता हूं!’ इंदिरा गांधी ने बिना समय गंवाए प्रतिक्रिया दी, ‘आई
वॉन्ट यू टू मार्च इन ईस्ट पाकिस्तान.’ जनरल ने बड़े इत्मीनान
से जवाब दिया, ‘इसका मतलब तो जंग है, मैडम.’
प्रधानमंत्री ने भी बड़े जोश से कहा, ‘जो भी है,
मुझे इस समस्या का तुरंत हल चाहिए.’ मानेकशॉ
मुस्कुराए और कहा, ‘आपने बाइबिल पढ़ी है?’ जनरल के सवाल पर सरदार स्वर्ण सिंह हत्थे से उखड़ गए और बोले, ‘इसका बाइबिल से क्या मतलब है, जनरल?’ मानेकशा ने कहा, ‘पहले अंधेरा था, ईसा ने कहा कि उन्हें रौशनी चाहिए और रौशनी हो गयी. लेकिन यह सब बाइबिल के
जितना आसान नहीं है कि आप कहें मुझे जंग चाहिए और जंग हो जाए.’ ‘क्या तुम डर गए जनरल!’ यह कहते हुए यशवंत चौहान ने
भी बातचीत में दखल दिया. ‘मैं एक फौजी हूं. बात डरने की नहीं
समझदारी और फौज की तैयारी की है. इस समय हम लोग तैयार नहीं हैं. आप फिर भी चाहती
हैं तो हम लड़ लेंगे पर मैं गारंटी देता हूं कि हम हार जायेंगे. हम अप्रैल के महीने
में हैं. पश्चिम सेक्टर में बर्फ पिघलने लग गयी है. हिमालय के दर्रे खुलने वाले हैं,
क्या होगा अगर चीन ने पाकिस्तान का साथ देते हुए वहां से हमला कर
दिया? कुछ दिनों में पूर्वी पाकिस्तान में मॉनसून आ जाएगा,
गंगा को पार पाने में ही मुश्किल होगी. ऐसे में मेरे पास सिर्फ सड़क
के जरिए वहां तक पहुंच पाने का रास्ता बचेगा. आप चाहती हैं कि मैं 30 टैंक और दो बख्तरबंद डिवीज़न लेकर हमला बोल दू!’ मीटिंग
ख़त्म हो चुकी थी. इस दौरान जनरल ने इस्तीफे की पेशकश भी की, जिसे
प्रधानमंत्री ने नकार दिया और उन्हें उनके हिसाब से तैयारी करने का हुक्म दे दिया.16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना के औपचारिक
आत्मसमर्पण के बाद भारत को इस युद्ध में जीत मिल चुकी थी. और इस तरह एशिया में एक
नए मुल्क का उदय हुआ. बांग्लादेश का निर्माण होना भारत और वहां के नागरिकों की
संयुक्त सफलता थी, लेकिन अगर हम इस युद्ध में भारत की अपनी
एक अहम उपलब्धि की बात करें तो वह थी पाकिस्तान का हमारी शर्तों पर आत्मसमर्पण
करना. भारतीय सेना ने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल नियाज़ी को सरेआम ढाका में
आत्समर्पण करवाया था. पाकिस्तान की हारी हुई फौज ने हिन्दुस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल
जगजीत सिंह अरोड़ा को गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया था. पाकिस्तान के 26,000 सैनिकों ने हमारे मात्र 3000 सैनिकों के सामने
हथियार डाले थे. इसी तरह पश्चिमी सेक्टर में भी भारत की जीत मुकम्मल थी. यूं तो इस
जंग में वायु सेना और जल सेना ने भी कमाल का प्रदर्शन किया था पर जीत का सेहरा
मानेकशॉ के सिर बंधा और उनकी लोकप्रियता चरम पर पहुंच गई. इसके पीछे कई कारण थे. 1857 के ग़दर से लेकर 1947 तक हिन्दुस्तान की अवाम का
मनोबल टूट चुका था. आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की शुरू की गईं
पंचवर्षीय योजनाएं बेअसर सी दिखाईं पड़ रही थीं. सामाजिक समस्याएं, जनसंख्या के साथ दिनों-दिन बड़ी और भयावह होती जा रही थीं. फिर रही-सही
कसर चीन से मिली हार ने पूरी कर दी थी. वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ 1948 और 1965 की लड़ाइयों के नतीजों पर तो आज भी बहस जारी
है. 1971 की जंग पाकिस्तान के साथ तीसरी लड़ाई थी. इसके पहले
तक देश एक तरह से जूझना और जीतना तकरीबन भूल चुका था. यही वो दौर था जब भारत एक
बड़े खाद्यान्न संकट का सामना कर रहा था. तब देश को इस जीत ने ख़ुद में यकीन करने
साहस दिया और इसके केंद्र में थे सैम मानेकशॉ, और यही वजह थी
कि जनता को उनमें अपना नायक नजर आया ।
तीन अप्रैल, 1913 को एक पारसी
परिवार में जन्मे मानेकशॉ डॉक्टर बनना चाहते थे. लेकिन पिता ने मना कर दिया.
लिहाज़ा बग़ावत के तौर पर सैम फौज में दाखिल हो गए. सैम मानिकशॉ पंजाब रेजिमेंट में
शामिल हुए और बाद में गोरखा राइफल्स में कर्नल बने. बताते हैं कि इस दौरान एक बार
जब वे गोरखा टुकड़ी की सलामी ले रहे थे तब उसके हवलदार से उन्होंने पुछा, ‘तेरो नाम के छाहे (है)‘ उसने कहा, ‘हरका बहादुर गुरुंग’. सैम ने फिर पूछा, ‘मेरो नाम के छाहे ?’ उसने कुछ देर सोचा और कहा,
‘सैम बहादुर!’ तबसे वे सैम ‘बहादुर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
सैम साहब ने खुद ही खुलासा किया...
2008 फील्ड मार्शल मानेकशॉ वेलिंगटन अस्पताल, तमिलनाडु में भर्ती थे। गम्भीर अस्वस्थता तथा अर्धमूर्छा में वे एक नाम
अक्सर लेते थे - 'पागी-पागी!' डाक्टरों
ने एक दिन पूछ दिया “Sir, who is this Paagi?”
1971 भारत युद्ध जीत चुका था, जनरल
मानेक शॉ ढाका में थे। आदेश दिया कि पागी को बुलवाओ, dinner आज
उसके साथ करूँगा! हेलिकॉप्टर भेजा गया। हेलिकॉप्टर पर सवार होते समय पागी की एक
थैली नीचे रह गई, जिसे उठाने के लिए हेलिकॉप्टर वापस उतारा
गया था। अधिकारियों ने नियमानुसार हेलिकॉप्टर में रखने से पहले थैली खोलकर देखी तो
दंग रह गए, क्योंकि उसमें दो रोटी, प्याज
तथा बेसन का एक पकवान (गाठिया) भर था। डिनर में एक रोटी सैम साहब ने खाई एवं दूसरी
पागी ने। उत्तर गुजरात के सुईगाँव अन्तर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र की एक बॉर्डर
पोस्ट को रणछोड़दास पोस्ट नाम दिया गया। यह पहली बार हुआ कि किसी आम आदमी के नाम
पर सेना की कोई पोस्ट हो, साथ ही उनकी मूर्ति भी लगाई गई हो।
पागी यानी 'मार्गदर्शक', वो व्यक्ति जो
रेगिस्तान में रास्ता दिखाए। 'रणछोड़दास रबारी' को जनरल सैम मानिक शॉ इसी नाम से बुलाते थे। गुजरात के बनासकांठा ज़िले के
पाकिस्तान सीमा से सटे गाँव पेथापुर गथड़ों के थे रणछोड़दास। भेड़, बकरी व ऊँट पालन का काम करते थे। जीवन में बदलाव तब आया जब उन्हें 58 वर्ष की आयु में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें
पुलिस के मार्गदर्शक के रूप में रख लिया। हुनर इतना कि ऊँट के पैरों के निशान
देखकर बता देते थे कि उस पर कितने आदमी सवार हैं। इन्सानी पैरों के निशान देखकर
वज़न से लेकर उम्र तक का अन्दाज़ा लगा लेते थे। कितनी देर पहले का निशान है तथा
कितनी दूर तक गया होगा सब एकदम सटीक आँकलन जैसे कोई कम्प्यूटर गणना कर रहा हो। 1965 युद्ध की आरम्भ में पाकिस्तान सेना ने भारत के गुजरात में कच्छ सीमा
स्थित विधकोट पर कब्ज़ा कर लिया, इस मुठभेड़ में लगभग 100 भारतीय सैनिक हत हो गये थे तथा भारतीय सेना की एक 10000 सैनिकोंवाली टुकड़ी को तीन दिन में छारकोट पहुँचना आवश्यक था। तब आवश्यकता
पड़ी थी पहली बार रणछोडदास पागी की! रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी पकड़ की बदौलत
उन्होंने सेना को तय समय से 12 घण्टे पहले मञ्ज़िल तक पहुँचा
दिया था। सेना के मार्गदर्शन के लिए उन्हें सैम साहब ने खुद चुना था तथा सेना में
एक विशेष पद सृजित किया गया था 'पागी' अर्थात
पग अथवा पैरों का जानकार। भारतीय सीमा में छिपे 1200
पाकिस्तानी सैनिकों की location तथा अनुमानित संख्या केवल
उनके पदचिह्नों से पता कर भारतीय सेना को बता दी थी, तथा
इतना काफ़ी था भारतीय सेना के लिए वो मोर्चा जीतने के लिए। 1971 युद्ध में सेना के मार्गदर्शन के साथ-साथ अग्रिम मोर्चे तक गोला-बारूद
पहुँचवाना भी पागी के काम का हिस्सा था। पाकिस्तान के पालीनगर शहर पर जो भारतीय
तिरंगा फहरा था उस जीत में पागी की भूमिका अहम थी। सैम साब ने स्वयं ₹300 का नक़द पुरस्कार अपनी जेब से दिया था। पागी को तीन
सम्मान भी मिले 65 व 71 युद्ध में उनके
योगदान के लिए - संग्राम पदक, पुलिस पदक व समर सेवा पदक! 27 जून 2008 को सैम मानिक शॉ की मृत्यु हुई तथा 2009 में पागी ने भी सेना से 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति'
ले ली। तब पागी की उम्र 108 वर्ष थी ! जी हाँ,
आपने सही पढ़ा... 108 वर्ष की उम्र में 'स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति'! सन् 2013 में 112 वर्ष की आयु में पागी का निधन हो गया। आज
भी वे गुजराती लोकगीतों का हिस्सा हैं। उनकी शौर्य गाथाएँ युगों तक गाई जाएँगी।
अपनी देशभक्ति, वीरता, बहादुरी,
त्याग, समर्पण तथा शालीनता के कारण भारतीय
सैन्य इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए रणछोड़दास रबारी यानि हमारे 'पागी'।
दूसरे विश्वयुद्ध में बतौर
कप्तान सैम मानेकशॉ, की तैनाती
बर्मा फ्रंट पर हुई. थी उन्हें सित्तंग पुल को जापानियों से बचाने की ज़िम्मेदारी
दी गयी थी. उन्होंने वहां बड़ी बहादुरी से अपनी कंपनी का नेतृत्व किया था. उस लड़ाई
में उनके पेट में सात गोलियां लगी थीं और वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे. सैम के
बचने की संभावना कम ही थी. उनकी बहादुरी से मुत्तासिर होकर डिवीज़न के कमांडर मेजर
जनरल डीटी कवन ने अपना मिलिट्री क्रॉस (एक सम्मान चिन्ह) उन्हें देते हुए कहा, ‘...मरने पर मिलिट्री क्रॉस नहीं मिलता.’ इसमें कोई
दोराय नहीं कि सैम अपनी बहादुरी साबित कर चुके थे और इस सम्मान के हकदार थे. लेकिन
उनकी बहादुरी का यह किस्सा यहीं खत्म नहीं होता. घायल सैम को सेना के अस्पताल ले
जाया गया. यहां के एक प्रमुख डॉक्टर ने उनसे पूछा, ‘तुम्हें
क्या हुआ है बहादुर लड़के?’ इस पर उनका जवाब, ‘मुझे एक खच्चर ने लात मारी है!’ अब ज़रा सोचिये कि
किसी के पेट में सात गोलियां हों और जो मौत के मुहाने पर खड़ा हो, वो ऐसे में भी अपना मजाकिया अंदाज़ न छोड़े तो आप उसे क्या कहेंगे? शायद
बहादुर!
1961 में वीके कृष्ण मेनन ने उनके ख़िलाफ़ यह कहकर कोर्ट
ऑफ़ इंक्वायरी बिठा दी थी कि उनकी कार्यशैली में अंग्रेजों का प्रभाव दिखता है (उस
समय मानेकशॉ स्टाफ कॉलेज में कमांडेंट के पद पर तैनात थे) मेनन ज़ाहिर तौर पर
समाजवादी थे. संभव है कि वो उन्हें पसंद ना करते हों. पर मामले की गहराई में जाने
पर कुछ और भी समझ आता है. सैम के समकालीन लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल नेहरू के
करीबी थे और कौल साहब को कई बार इस बात का फायदा मिला. 1962
की लड़ाई में कौल चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ नियुक्त थे और उन्हें 4
कोर, मुख्यालय तेजपुर असम का कमांडर बनाया गया. सेना में यह
पद - चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ, सेनाध्यक्ष से एक पोस्ट नीचे होता
थी. इसलिए मुमकिन हैै कि कौल साहब को सैम पर तरजीह देने के लिए यह जांच बिठाई गयी
हो? खैर, लेफ्टिनेंट जनरल बृजमोहन कौल
बतौर कमांडर कोई तीर नहीं मार पाए थे. चीन भारत की पूर्वी सीमा पर हावी होता जा
रहा था तब नेहरू ने कौल को हटाकर सैम मानेकशॉ को 4 कोर का
जनरल ऑफिसर कमांडिंग बनाकर भेजा. चार्ज लेते ही जवानों को उनका पहला ऑर्डर था,
‘जब तक कमांड से ऑर्डर न मिले मैदान ए जंग से कोई भी पीछे नहीं
हटेगा और मैं सुनिश्चित करूंगा कि ऐसा कोई आदेश न आए.’ उसके
बाद चीनी सैनिक एक इंच ज़मीन भी अपने कब्ज़े में नहीं ले पाए और आखिरकार युद्ध विराम
की घोषणा हो गयी. यहां से सैम का ‘वक़्त’ शुरू हो गया. 1965 की लड़ाई में भी उन्होंने काफी अहम
भूमिका निभाई थी. आठ जून, 1969 को गोरखा रायफल्स का पहला
अफ़सर देश का सातवां सेनाध्यक्ष (4 स्टार) बना. 1973 में वे फ़ील्ड मर्शाल (5 स्टार) जनरल बना दिए गए.
फ़ील्ड मार्शल कभी रिटायर नहीं होते, उनकी गाड़ी पर 5 स्टार लगे रहते हैं. वे ताज़िन्दगी फौज की वर्दी पहन सकते हैं और फौज की
सलामी ले सकते हैं. सैम का सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत कमाल का था. वे इंदिरा गांधी को ‘स्वीटी’, ‘डार्लिंग’ कहकर
बुलाते थे. सरकारों को फौजी जनरलों से बहुत डर लगता है और जब जनरल मानेकशॉ सरीखे
का बहादुर और बेबाक हो, तो यह डर कई गुना बढ़ जाता है. 1971 के बाद आये दिन यह अफवाह उड़ने लगी थी कि वे सरकार का तख्ता पलट करने वाले
हैं. इससे आजिज़ आकर, इंदिरा ने उन्हें एक दिन फ़ोन किया ।
सैम साहब ने खुद ही यह किस्सा एक इंटरव्यू में
बताया था. इसके मुताबिक फोन पर और बाद में प्रधानंत्री के साथ उनकी जो बातचीत हुई
वह इस प्रकार थी : इंदिरा गांधी : ‘सैम, व्यस्त हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘देश का जनरल हमेशा
व्यस्त होता है, पर इतना भी नहीं कि प्राइम मिनिस्टर से बात
न कर सके.’
इंदिरा गांधी : ‘क्या कर रहे हो?’
सैम मानेकशॉ : ‘फिलहाल चाय पी रहा
हूं.’
इंदिरा गांधी : मिलने आ सकते हो? चाय मेरे दफ्तर में पीते हैं.’
सैम मानेकशॉ : ‘आता हूं.’
मानेकशॉ ने फिर फ़ोन रखकर अपने एडीसी से कहा, ‘गर्ल’ वांट्स टू मीट मी.’
सैम कुछ देर में प्रधानमंत्री कार्यालय पंहुच गए.
वे बताते हैं कि इंदिरा सिर पकड़ कर बैठी हुई थीं.
सैम मानेकशॉ : ‘क्या हुआ मैडम प्राइम
मिनिस्टर?’
इंदिरा गांधी : ‘मैं ये क्या सुन रही
हूं?’
सैम मानेकशॉ : ‘मुझे क्या मालूम आप
क्या सुन रही हैं? और अगर मेरे मुत्तालिक है तो अब क्या कर
दिया मैंने जिसने आपकी पेशानी पर बल डाल दिए हैं?’
इंदिरा गांधी : ‘सुना है तुम तख्तापलट
करने वाले हो. बोलो क्या ये सच है?’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आपको
क्या लगता है?’
इंदिरा गांधी : ‘तुम ऐसा नहीं करोगे
सैम.’
सैम सैम मानेकशॉ : ‘आप
मुझे इतना नाकाबिल समझती हैं कि मैं ये काम (तख्तापलट) भी नहीं कर सकता!’ फिर रुक कर वे बोले,’ देखिये प्राइम मिनिस्टर,
हम दोनों में कुछ तो समानताएं है. मसलन, हम
दोनों की नाक लम्बी है पर मेरी नाक कुछ ज़्यादा लम्बी है आपसे. ऐसे लोग अपने काम
में किसी का टांग अड़ाना पसंद नहीं करते. जब तक आप मुझे मेरा काम आजादी से करने
देंगी, मैं आपके काम में अपनी नाक नहीं अड़ाउंगा. ।
एक दूसरा किस्सा भी है जो सैम मानिकशॉ की बेबाकी
और बेतकल्लुफी को दिखाता है. तेजपुर में वे एक बार नेहरू को असम के हालात पर
ब्रीफिंग दे रहे थे कि तभी इंदिरा उस कमरे में चली आईं. सैम ने इंदिरा को यह कहकर
बाहर करवा दिया था कि उन्होंने अभी गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. फिर एक बार किसी
इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि जिन्नाह ने उन्हें पाकिस्तान आर्मी में आने का
निमंत्रण दिया था. जब पत्रकार ने यह पूछा था कि वे अगर पकिस्तान सेना में होते तो 1971 के युद्ध का परिणाम क्या होता? जैसी कि एक जनरल से
उम्मीद की जा सकती है उन्होंने वैसा ही जवाब दिया. उनका कहना था, ‘...कि तब पाकिस्तान जीत गया होता... रिटायरमेंट के बाद कई कंपनियों ने उनकी
सेवाएं लीं. वे कुछ के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स थे और कहीं मानद चेयरमैन. आज सैम की
ज़िन्दगी और उनसे जुड़े किस्से किवदंती बन चुके हैं लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि
वे एक साहसी और चतुर जनरल थे ।