क्या कभी सोचा भी था कि ऐसे दिन आएंगे...
वर्तमान में हालात इतने भयावह हो चुके हैं कि कुछ कहना बेमानी सा लगने लगने लगा है। हमने-आपने क्या कभी सोचा भी था कि ऐसे दिन आएंगे, जब मानवीय मिलन परम्परा और व्यवहार सिमट जाएगा। मानव को एक-दूजे से दूरी बनानी पड़ेगी। इतना ही नहीं सुख-दु:ख में परस्पर मेल-जोल और सहयोग का सामाजिक ताना-बाना ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। परायों-पड़ोसियों और मित्रों-परिचितों की छोड़िए किसी परिजन के बीमार होने या मौत पर अपने भी निकट आने से कतराएंगे। किसी परिचित की मौत की खबर चौंकांएगी नहीं।
पर हालात ऐसे ही हैं और देश में कोरोना वायरस संक्रमण महामारी अब अपना भीषण रूप ले चुकी है। इसके प्रकोप से अब देश में कई लाख लोग रोजाना बीमार पड़ रहे हैं और हजारों लोग काल के गाल में समाते जा रहे हैं।
परिणाम रूवरूप हर कोई डरा हुआ है, संक्रमण की वपेट में आने के अंदेशे से भयभीत होकर लोग एक-दूसरे से दूरी बना रहे हैं। शादी-ब्याह की कौन कहे, शोक संवेदना व्यक्त करने तक नहीं जा पा रहे हैं। बीमार परिजनों से दूरी बना रहे हैं, मृतकों का तिरस्कार कर रहे हैं।
शहरों की छोड़िए भाईचारे और आपसी सहयोग के जीवंत गढ़ माने-कहे जाने वाले गांवों में भी अबकी स्थितियों अत्यंत गंभीर हैं और कोरोना संक्रमण से मौत होने पर पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार की रस्में पूरी करने वालों का टोटा पड़ गया है। मृतकों के पार्थिक शरीर की अंतिम यात्रा श्मशान पहुंचाने के लिए कांधे तक नहीं मिल पा रहे हैं। वह दिन हवा हो गए जब, किसी के देहावसान पर जुटने वालों की संख्या देखकर उसके कर्म और कद का अनुमान लगाया जाता था। वर्तमान में काल में वह भाग्यशाली ही कहे जाएंगे जिन्हें जीते-जी अपनों का साथ और अंतिम समय चार कांधे नसीब हो पा रहे हैं। अन्यथा शहर में तो सक्षम वर्ग एम्बुलेंस और किराए पर कुछ लोग जुटा भी पा रहे हैं, लेकिन गांवों में तो ऐसे दृश्य अब आम हो चले हैं कि असहाय परिजन अपने निकटस्थ की पार्थिव देह को बुग्गी-ट्रैक्टर ट्रॉली में रखकर अकेले ही श्मशान पहुंचाकर अंत्येष्टि की रस्में निभा रहे हैं। अपने परिजन की देह को कार की छत, साइकिल या कांधे पर अकेले श्मशान पहुंचाने के समाचार-चित्र भी अब सामने आ रहे हैं।
ऐसी स्थितियों-परिस्थितियों के बीच अब भी कुछ मानव रूपी 'गिद्ध' ऐसे हैं जो दवाओं, उपचार संबंधी उपकरणों और प्राणाधार बन चुकी ऑक्सीजन आदि की कालाबाजारी कर जेबें भरने में जुटे हैं। इनमें कुछ राजनीतिक गिद्ध भी शामिल हैं, जो आपदाकाल को सत्ता में वापसी का माध्यम मान-समझ बैठे हैं और नित-नए खेल-प्रपंच कर रहे हैं। संभवत: इन 'गिद्धों का मानना-समझना है कि वे अमृतपान कर चुके हैं और उनके कर्मों का हिसाब करके दंड देने के बजाए कालदेव यमराज उन्हें अभयदान दिए रखेंगे। हालांकि सत्य जी हां, अटल सत्य यही है कि सब याद रखा जाएगा और हिसाब भी चुकाया जाएगा। क्योंकि सभी के कर्मों-कुकर्मों, पाप-पुण्य का हिसाब होना अवश्यंभावी है। अत: हे मानव रूपी कारोबारी और सियासी 'गिद्धों' चेतिए, अब भी समय है अपने कर्म सुधारिए। मस्तिष्क की समस्त खिड़कियां-झरोखे खोलकर, कान लगाकर सुन-समझ लीजिए कि अंततोगत्वा कर्मफल तो भुगतना ही पड़ेगा, यहीं पृथ्वी पर ही, हर हाल, हर कीमत पर।
बहरहाल जो हुआ सो हुआ, फिलहाल जरूरत है विकराल रूप घर चुकी महामारी से लड़ने की। ऐसे में नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है। अभी समय है संभलने-संभालने का, हालात काबू करने का। जरूरत है तो सिर्फ इतनी कि सरकार से लेकर हर खास-ओ-आम तक सभी संबंधित पक्षों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, तभी हम भारतीय इस महामारी पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। रात कितनी भी गहरी-काली क्यों न हो, उसके बाद सुबह जरूर होती है। आशा का दीपक जलाए रखें, उससे अंधेरा भी छंटेगा और प्रकाश की किरणें अपनी आभा बिखेरकर चारों दिशाओं को प्रकाशित करेंगी। विश्वास रखिए, इस महामारी का भी अन्त जरूर होगा और हम निडर होकर जीवन पथ पर सामान्य रूप से आगे बढ़ेंगे।