नागिरकों को राष्ट्र चिंतन करने की है जरूरत
कोरोना महामारी से विश्व व्यापी जंग में हमें निभाना होगा अपना दायित्व
कोरोना के खिलाफ जंग में ऊंट किस करवट बैठेगा यह बात अब तक किसी की समझ में नहीं आ रही है। क्योंकि अभी तोकोरोना की दवा ही नहीं बनी है, कहा जाए जो यह एक ऐसे युद्ध की स्थिति है, जिसमें दुश्मन की पहचान तो हो गयी है, लेकिन इसका पता नहीं है कि वह कैसे हमला करेगा और किस तरफ से आयेगा। दरअसल कोरोना नाम का दुश्मन कहीं से भी घुस कर इंसानों की जान ले रहा है। इसकी चपेट में आकर अर्थव्यवस्था पर भी ज़बरदस्त हमला हुआ है। हालात की गंभीरता और खुद की लाचारी को समझते हुए विश्व में सभी दुआ कर रहे हैं कि किसी तरह इस दुश्मन पर जीत हासिल हो। अधिकांश भारतीय भी कोरोना के खिलाफ इस जंग में सरकार के साथ हैं। होने को हम सभी को एकजुट होकर राष्ट्र चिंतन करने और सरकार का सहयोग करने की जरूरत है। क्योंकि कोरोना महामारी से विश्व व्यापी जंग में हमें बतौर भारतीय अपना दायित्व निभाना होगा। दूसरे विश्वयुद्ध से ज्यादा बड़ा हमला है कोरोना वायरस संयुक्त राष्ट्र ने तो कह ही दिया है कि कोरोना के खिलाफ जारी संघर्ष दूसरे विश्वयुद्ध से भी बड़ा है। अमरीका और यूरोप के देशों ने दूसरे विश्वयुद्ध में आमने-सामने से मुकाबला किया था। जर्मनी, इटली और जापान उस वक़्त सब के दुश्मन थे, उनकी सेनाओं को हरा दिया गया और युद्ध में जीत हासिल हो गयी। लेकिन चीन की धरती पर जन्मे इस कोरोना वायरस से युद्ध में जर्मनी और इटली भी बाकी देशों के साथ एक ही दुश्मन से लोहा ले रहे हैं। विशेषज्ञों का यह भी अनुमान है कि जानमाल का जितना नुकसान दूसरे विश्वयुद्ध में हुआ था, अबकी हुए चाइनीज वायरस के इस हमले में उससे कहीं ज्यादा होगा। बात भारत की करें तो उस विश्वयुद्ध में हमारे देश पर सीधा हमला नहीं हुआ था, लेकिन हमारे सारे कल-कारखाने युद्धक संसाधन जुटाने के प्रयास में लगा दिए गए थे। ऐसे में नुकसान हमें तब भी खासा झेलना पड़ा था। उस दौर में देश में कपडे आदि तक की भी किल्लत थी। हर युद्ध में एकजुट रहे हैं भारतवासी, आगे बढ़कर दिया नेतृत्व का साथ आज़ादी की लड़ाई के बाद जब भी युद्ध हुआ है, भारतवासी उसके खिलाफ एकजुट हुए हैं। हमारे पूर्वजों ने वर्ष 1965 और 1971 के पाकिस्तान के खिलाफ हुए युद्ध के दौरान अपने स्कूल और कालेजों में माहौल देखा है। वर्ष 1965 के युद्ध के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री हमारे नायक थे। देश के प्रधानमंत्री के साथ सारा देश था। शास्त्री जी ने कहा कि युद्ध ने हमारे अन्न के भंडार पर भी हमला किया है। उस
युद्ध के पहले 1963-1965 में अकाल पडा था और 1962 की लड़ाई में चीन से मिली शिकस्त को देश ने झेला था।
वर्ष 1965 की भारत-पाकिस्तान लड़ाई के समय खज़ाना भी खाली था, लेकिन देश अपने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के साथ था। उन्होंने कहा कि खाना कम खाओ, एक दिन का उपवास रखो। देश में बहुत से ऐसे परिवार भी थे, जो पहले से ही अभाव झेल रहे थे, लेकिन देश की बड़ी आबादी ने एक दिन का उपवास रखकर प्रधानमंत्री का साथ दिया। शास्त्री जी ने कहा कि युद्ध के लिए धन चाहिए, देशवासियों ने अपने सोने-चांदी के जेवरात दान करने से भी गुरेज नहीं किया। कहा जाता है कि तक नवविवाहिताओं ने भी अपने गहने तक दान कर दिए। उसके बाद वर्ष 1971 की लड़ाई हुई, उस वक़्त टेलिविज़न की ख़बरें नहीं होती थीं, सभी अखबारों में युद्ध की नेता प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में खबरें छपती थीं। देश के प्रमुख विरोधी दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐलान कर दिया कि देश इंदिरा जी के साथ खड़ा है। उस दौरान अमेरिका ने भारत का विरोध किया तो भारतीय जनमानस आज तक यह बात भूल नहीं पाया और अमरीका को अक्सर एक शत्रु के रूप में ही देखता आया है।युद्ध काल में केवल देश ही एकमात्र धर्म होता है युद्ध काल में देशवासियों का केवल मात्र एक ही धर्म होता है और वह है देश, नागरिकों का सिर्फ एक ही कर्तव्य होता है, एकजुट होकर देश की सरकार का साथ देना। क्योंकि उस समय सेनानायक कोई भी हो, लेकिन देश का सर्वोच्च नेता ही उस युद्ध का कमांडर-इन-चीफ होता है। वह अपनी टीम के साथ इस जंग को जीतने और नागरिकों के बचाव की रणनीति बनाता है। उसको अपने देश की ताक़त और कमजोरी की जानकारी होती है। यह भी सच है कि किसी भी युद्ध में मेडिकल सुविधाओं के लिए कोई देश तैयार नहीं होता है। अमेरिका और यूरोप में मेडिकल सुविधाएं बेशक बहुत ही अच्छी मानी जाती हैं। शान्तिकाल संभवत: इन देशों से अच्छी मेडिकल सुविधा की कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन आज जब पूरा विश्व कोरोना संक्रमण से युद्ध के समय वह सब चरमरा गयी है। हमारे यहां तो पहले से ही उसकी स्थिति यूरोपीय देशों के मुकाबिल नहीं थी। ज़ाहिर है कि परेशानी पेश आयेगी ही। कोरोन के खिलाफ जंग में लामबंद होने की है जरूरत मौजूदा युद्ध में पूरी दुनिया का दुश्मन कोरोना वायरस है, उसके खिलाफ इस जंग में सबको लामबंद होने की ज़रूरत है। इस लड़ाई में हमारे कमांडर-इन-चीफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और जिस सेना की वे अगुवाई कर रहे हैं, उसमें कोई जनरल और कर्नल नहीं है। इस लड़ाई में उनकी फ़ौज में देश के सभी डाक्टर, पैरामेडिकल विशेषज्ञ, चिकित्सा कर्मचारी, पुलिस आदि शामिल हैं। उनको समर्थन देने की ज़रूरत है। देश की जनता को एकजुट करने के लिए प्रधानमंत्री ने कुछ तरीके अपनाए हैं, हममें से अनेक लोगों की उनसे वैचारिक असहमति हो सकती है, लेकिन अधिकांश लोग व्यक्तिगत रूप से उन तरीकों का समर्थन करने को तैयार हैं। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि हमारी सीमित मेडिकल सुविधाओं के मद्दे-नज़र अस्पताल में बीमार लोगों की देखभाल संभव नहीं हो पायेगी। इसलिए देशवासियों में से अधिकांश ने लॉकडाउन की हमेशा वकालत की, उसके चलते बहुत सारे मजदूरों को भी विभिन्न कारणों से तकलीफ उठानी पड़ी। लॉकडाउन की पैरवी इस लिए भी अनिवार्य हो जाती है, क्योंकि जो बीमारी महज छू लेने या नजदीक आने भर से लग सकती हो उसे फैलने से रोकने का सबसे कारगर तरीका लॉकडाउन ही है। बड़ी लडाई में प्रतीक या संकेत का होता है बड़ा महत्व कोरोना से इस युद्ध में जब प्रधानमंत्री ने अपने घर के सामने खड़े होकर ताली बजाने को कहा तो लगा कि आज की परिस्थिति में देश की जनता का मूड समझने का वह एक अच्छा तरीका है। हालांकि उसमें भी कुछ लोग सड़कों पर भीड़ करके जुलूस की शक्ल में निकल पड़े थे। सड़क पर निकलना गलत था। उसके बाद प्रधानमंत्री ने लोगों से दिया जलाने को कहा। अपने टीवी संबोधन के समय उन्होंने बार-बार कहा था कि दिया अपने घर में ही रहकर जलाना है, बाहर नहीं निकलना है, लेकिन लोग बाहर निकलकर पटाखे चलाने लगे। जिससे बेहद गलत संदेश गया, दीया जहां ऊर्जा का प्रतीक है, वहीं मोमबत्ती सहानुभूति का सिम्बल है, जबकि पटाखे जश्न का संकेत हैं। बेशक पटाखे जलाने वालों की निंदा होनी चाहिए और हुई भी, लेकिन दीया, मोमबती जलाने या ताली बजाने का विरोध महज इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि चुनींदा लोगों को नरेद्र मोदी का हर हाल में विरोध करना है। हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने शांतिकाल में लिए गए उनके कई फैसलों का विरोध किया है, लेकिन युद्धकाल में कमांडर-इन-चीफ का विरोध नहीं किया जाना चाहिए। ताली, दीया और मोमबती के सिम्बल का विरोध भी राजनेता कर रहे हैं, लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि किसी भी बड़ी लडाई में प्रतीक या संकेत का बड़ा महत्व होता है। दांडी मार्च को लेकर लोगों ने उड़ाया था गांधी जी का मजाक याद कीजिए गांधी जी ने दांडी मार्च करके जब एक मुट्ठी नमक उठाया था तो लोगों ने उनका भी मजाक उड़ाया था, लेकिन दुनिया जानती है कि उसके बाद देश में किस तरह का मोबिलाइज़ेशन हुआ था। एकता की बदौतल ही फिरंगियों के राज से आजादी हासिल करने की ताकत देश को मिली थी।
इसलिए कोरोना से इस युद्ध के दौरान कमांडर-इन-चीफ की बात को मानते रहने में ही भलाई है, क्योंकि यह लड़ाई भी अनंतकाल तक नहीं चलेगी। जब इस से उबर जायेंगे तो इन सारे फैसलों की विवेचना की जायेगी। यदि आपको विरोध करना है या आलोचना करनी है तो उसका अवसर भी आयेगा। फिलहाल संकटकाल है और यह लड़ाई हमें एकजुट होकर इस युद्ध के कमांडर-इन-चीफ नरेंद्र मोदी की लीडरशिप को स्वीकार करते हुए ही लड़ना ज़रूरी है।